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स इद्राजा॒ प्रति॑जन्यानि॒ विश्वा॒ शुष्मे॑ण तस्थाव॒भि वी॒र्ये॑ण। बृह॒स्पतिं॒ यः सुभृ॑तं बि॒भर्ति॑ वल्गू॒यति॒ वन्द॑ते पूर्व॒भाज॑म् ॥७॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sa id rājā pratijanyāni viśvā śuṣmeṇa tasthāv abhi vīryeṇa | bṛhaspatiṁ yaḥ subhṛtam bibharti valgūyati vandate pūrvabhājam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सः। इत्। राजा॑। प्रति॑ऽजन्यानि। विश्वा॑। शुष्मे॑ण। त॒स्थौ॒। अ॒भि। वी॒र्ये॑ण। बृह॒स्पति॑म्। यः। सुऽभृ॑तम्। बि॒भर्त्ति॑। व॒ल्गु॒ऽयति॑। वन्द॑ते। पू॒र्व॒ऽभाज॑म् ॥७॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:50» मन्त्र:7 | अष्टक:3» अध्याय:7» वर्ग:27» मन्त्र:2 | मण्डल:4» अनुवाक:5» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (यः) जो (सुभृतम्) उत्तम प्रकार धारण किये गये (बृहस्पतिम्) बड़ों में बड़े (पूर्वभाजम्) प्राचीनों से सेवा करने योग्य का (बिभर्त्ति) धारण करता (वल्गूयति) सत्कार करता और (वन्दते) कामना करता है जो (शुष्मेण) बल (वीर्य्येण) और पराक्रम से (विश्वा) सम्पूर्ण (प्रतिजन्यानि) प्रत्यक्ष से उत्पन्न होने योग्यों के (अभि) सम्मुख (तस्थौ) स्थित होता है (सः, इत्) वही जगदीश्वर (राजा) सब का प्रकाश करनेवाला सब लोगों के सेवा करने योग्य है ॥७॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जो परमेश्वर सम्पूर्ण जगत् को अभिव्याप्त होकर और धारके सूर्य्य को भी धारता है और सम्पूर्ण वेदों का उपदेश देकर प्रशंसित वर्त्तमान है और जिसकी सेवा योगिराज करते हैं, उसी की नित्य उपासना करो ॥७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यः सुभृतं बृहस्पतिं पूर्वभाजं बिभर्त्ति वल्गूयति वन्दते यः शुष्मेण वीर्य्येण विश्वा प्रतिजन्यान्यभि तस्थौ स इदेव राजा सर्वैर्भजनीयोऽस्ति ॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सः) जगदीश्वरः (इत्) (राजा) सर्वप्रकाशकः (प्रतिजन्यानि) प्रत्यक्षेण जनितुं योग्यानि (विश्वा) सर्वाणि (शुष्मेण) बलेन (तस्थौ) तिष्ठति (अभि) आभिमुख्ये (वीर्य्येण) पराक्रमेण (बृहस्पतिम्) महतां महान्तम् (यः) (सुभृतम्) सुष्ठु धृतम् (बिभर्त्ति) धरति (वल्गूयति) सत्करोति। वल्गूयतीत्यर्चतिकर्मा। (निघं०३.१४) (वन्दते) कामयते (पूर्वभाजम्) पूर्वैर्भजनीयम् ॥७॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! यः परमेश्वरः सर्वं जगदभिव्याप्य धृत्वा सूर्य्यमपि धरति सर्वान् वेदानुपदिश्य प्रशंसितो वर्त्तते यस्य सेवां योगिराजाः कुर्वन्ति तमेव नित्यमुपाध्वम् ॥७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो, जो परमेश्वर संपूर्ण जगात व्याप्त असून, त्याला धारण करतो तसेच सूर्यालाही धारण करतो व संपूर्ण वेदांचा उपदेश करतो. तो प्रशंसनीय आहे. ज्याची सेवा योगिजन करतात त्याचीच नित्य उपासना करा. ॥ ७ ॥